मनोविज्ञान Psychology
मनोविज्ञान (Psychology) वह शैक्षिक व अनुप्रयोगात्मक
विद्या है जो मानव-मस्तिष्क के कार्यों एवं मानव के व्यवहार का अध्ययन करती है।
मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो प्राणी के व्यवहार तथा मानसिक प्रक्रियाओं (mental
processes) का
अध्ययन करता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो क्रमबद्ध रूप से (systematically) प्रेक्षणीय व्यवहार (observable
behaviour) का
अध्ययन करता है तथा प्राणी के भीतर के मानसिक एवं दैहिक प्रक्रियाओं जैसे - चिन्तन, भाव आदि तथा वातावरण की घटनाओं
के साथ उनका संबंध जोड़कर अध्ययन करता है। इस परिप्रेक्ष्य में मनोविज्ञान को
व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं (mental process) के अध्ययन का विज्ञान कहा गया
है। व्यवहार में मानव व्यवहार तथा पशु व्यवहार दोनों ही सम्मिलित होते हैं। मानसिक
प्रक्रियाओं में चिंतन, भाव-संवेग
एवं अन्य तरह की अनुभूतियों का अध्ययन सम्मिलित होता है।
मनोविज्ञान अनुभव का विज्ञान है, इसका उद्देश्य चेतनावस्था की
प्रक्रिया के तत्त्वों का विश्लेषण, उनके परस्पर संबंधों का स्वरूप
तथा उन्हें निर्धारित करनेवाले नियमों का पता लगाना है।
अनुक्रम
इतिहास
प्राक्-वैज्ञानिक काल (per-scientific period) में मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र (Philosophy) का एक शाखा था। जब विल्हेल्म
वुण्ट (Wilhelm Wundt) ने १८७९ में मनोविज्ञान की पहला प्रयोगशाला खोला, मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र के
चंगुल से निकलकर एक स्वतंत्र विज्ञान का दर्जा पा सकने में समर्थ हो सका।
मनोविज्ञान
पर दर्शनशास्त्र का प्रभाव
मनोविज्ञान पर वैज्ञानिक प्रवृत्ति के साथ-साथ दर्शनशास्त्र
का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। वास्तव में वैज्ञानिक परंपरा बाद में आरंभ हुई।
पहले तो प्रयोग या पर्यवेक्षण के स्थान पर विचारविनिमय तथा चिंतन समस्याओं को
सुलझाने की सर्वमान्य विधियाँ थीं। मनोवैज्ञानिक समस्याओं को दर्शन के परिवेश में
प्रतिपादित करनेवाले विद्वानों में से कुछ के नाम उल्लेखनीय हैं।
डेकार्ट (1596 -
1650) ने
मनुष्य तथा पशुओं में भेद करते हुए बताया कि मनुष्यों में आत्मा होती है जबकि पशु
केवल मशीन की भाँति काम करते हैं। आत्मा के कारण मनुष्य में इच्छाशक्ति होती है। पिट्यूटरी
ग्रंथिपर शरीर
तथा आत्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। डेकार्ट के मतानुसार मनुष्य के
कुछ विचार ऐसे होते हैं जिन्हे जन्मजात कहा जा सकता है। उनका अनुभव से कोई संबंध
नहीं होता। लायबनीत्स (1646 -
1716) के
मतानुसार संपूर्ण पदार्थ "मोनैड" इकाई से मिलकर बना है। उन्होंने
चेतनावस्था को विभिन्न मात्राओं में विभाजित करके लगभग दो सौ वर्ष बाद आनेवाले
फ्रायड के विचारों के लिये एक बुनियाद तैयार की। लॉक (1632-1704)
का
अनुमान था कि मनुष्य के स्वभाव को समझने के लिये विचारों के स्त्रोत के विषय में
जानना आवश्यक है। उन्होंने विचारों के परस्पर संबंध विषयक सिद्धांत प्रतिपादित
करते हुए बताया कि विचार एक तत्व की तरह होते हैं और मस्तिष्क उनका विश्लेषण करता
है। उनका कहना था कि प्रत्येक वस्तु में प्राथमिक गुण स्वयं वस्तु में निहित होते
हैं। गौण गुण वस्तु में निहित नहीं होते वरन् वस्तु विशेष के द्वारा उनका बोध
अवश्य होता है। बर्कले (1685-1753) ने कहा कि वास्तविकता की अनुभूति पदार्थ के रूप में नहीं
वरन् प्रत्यय के रूप में होती है। उन्होंने दूरी की संवेदनाके विषय में अपने विचार
व्यक्त करते हुए कहा कि अभिबिंदुता धुँधलेपन तथा स्वत: समायोजन की सहायता से हमें
दूरी की संवेदना होती है। मस्तिष्क और पदार्थ के परस्पर संबंध के विषय में लॉक का
कथन था कि पदार्थ द्वारा मस्तिष्क का बोध होता है। ह्यूम (1711-1776)
ने मुख्य
रूप से "विचार" तथा "अनुमान" में भेद करते हुए कहा कि विचारों
की तुलना में अनुमान अधिक उत्तेजनापूर्ण तथा प्रभावशाली होते हैं। विचारों को
अनुमान की प्रतिलिपि माना जा सकता है। ह्यूम ने कार्य-कारण-सिद्धांत के विषय में
अपने विचार स्पष्ट करते हुए आधुनिक मनोविज्ञान को वैज्ञानिक पद्धति के निकट
पहुँचाने में उल्लेखनीय सहायता प्रदान की। हार्टले (1705-1757)
का नाम
दैहिक मनोवैज्ञानिक दार्शनिकों में रखा जा सकता है। उनके अनुसार स्नायु-तंतुओं में
हुए कंपन के आधार पर संवेदना होती है। इस विचार की पृष्ठभूमि में न्यूटन के द्वारा
प्रतिपादित तथ्य थे जिनमें कहा गया था कि उत्तेजक के हटा लेने के बाद भी संवेदना
होती रहती है। हार्टले ने साहचर्य विषयक नियम बताते हुए सान्निध्य के सिद्धांत पर
अधिक जोर दिया।
हार्टले के बाद लगभग 70 वर्ष तक साहचर्यवाद के क्षेत्र
में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। इस बीच स्काटलैंड में रीड (1710-1796) ने वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण का
वर्णन करते हुए बताया कि प्रत्यक्षीकरण तथा संवेदना में भेद करना आवश्यक है। किसी
वस्तु विशेष के गुणों की संवेदना होती है जबकि उस संपूर्ण वस्तु का प्रत्यक्षीकरण
होता है। संवेदना केवल किसी वस्तु के गुणों तक ही सीमित रहती है, किंतु प्रत्यक्षीकरण द्वारा
हमें उस पूरी वस्तु का ज्ञान होता है। इसी बीच फ्रांस में कांडिलैक (1715-1780) ने अनुभववाद तथा ला मेट्री ने
भौतिकवाद की प्रवृत्तियों की बुनियाद डाली। कांडिलैंक का कहना था कि संवेदन ही
संपूर्ण ज्ञान का "मूल स्त्रोत" है। उन्होंने लॉक द्वारा बताए गए
विचारों अथवा अनुभवों को बिल्कुल आवश्यक नहीं समझा। ला मेट्री (1709-1751)
ने कहा
कि विचार की उत्पत्ति मस्तिष्क तथा स्नायुमंडल के परस्पर प्रभाव के फलस्वरूप होती
है। डेकार्ट की ही भाँति उन्होंने भी मनुष्य को एक मशीन की तरह माना। उनका कहना था
कि शरीर तथा मस्तिष्क की भाँति आत्मा भी नाशवान् है। आधुनिक मनोविज्ञान में
प्रेरकों की बुनियाद डालते हुए ला मेट्री ने बताया कि सुखप्राप्ति ही जीवन का चरम
लक्ष्य है।
जेम्स
मिल (1773-1836)
तथा बाद
में उनके पुत्र जान स्टुअर्ट मिल (1806-1873)
ने
मानसिक रसायनी का विकास किया। इन दोनों विद्वानों ने साहचर्यवाद की प्रवृत्ति को
औपचारिक रूप प्रदान किया और वुंट के लिये उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार की। बेन (1818-1903)
के बारे
में यही बात लागू होती है। कांट ने समस्याओं के समाधान में व्यक्तिनिष्ठावाद की विधि अपनाई
कि बाह्य जगत् के प्रत्यक्षीकरण के सिद्धांत में जन्मजातवाद का समर्थन किया।
हरबार्ट (1776-1841) ने मनोविज्ञान को एक स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूण्र
योगदान किया। उनके मतानुसार मनोविज्ञान अनुभववाद पर आधारित एक तात्विक, मात्रात्मक तथा विश्लेषात्मक
विज्ञान है। उन्होंने मनोविज्ञान को तात्विक के स्थान पर भौतिक आधार प्रदान किया
और लॉत्से (1817-1881) ने इसी दिशा में ओर आगे प्रगति की।
मनोवैज्ञानिक
समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन का आरम्भ
मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन का शुभारंभ उनके
औपचारिक स्वरूप आने के बाद पहले से हो चुका था। सन् 1834 में वेबर ने स्पर्शेन्द्रिय संबंधी अपने
प्रयोगात्मक शोधकार्य को एक पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। सन् 1831 में फेक्नर स्वयं एकदिश धारा
विद्युत् के मापन के विषय पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित कर चुके थे। कुछ
वर्षों बाद सन् 1847 में हेल्मो ने ऊर्जा सरंक्षण पर अपना वैज्ञानिक लेख लोगों के सामने
रखा। इसके बाद सन् 1856 ई, 1860 ई तथा 1866 ईदृ में उन्होंने "आप्टिक" नामक पुस्तक तीन भागों में
प्रकाशित की। सन् 1851 ई तथा सन् 1860 ई में फेक्नर ने भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दो महत्वपूर्ण ग्रंथ
(ज़ेंड आवेस्टा तथा एलिमेंटे डेयर साईकोफ़िजिक प्रकाशित किए।
सन् 1858 ई में वुंट हाइडलवर्ग विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान में डाक्टर की उपधि प्राप्त कर
चुके थे और सहकारी पद पर क्रियाविज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रहे थे। उसी वर्ष
वहाँ बॉन से हेल्मोल्त्स भी आ गए। वुंट के लिये यह संपर्क अत्यंत
महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी के बाद उन्होंने क्रियाविज्ञान छोड़कर मनोविज्ञान को
अपना कार्यक्षेत्र बनाया।
वुंट ने अनगिनत वैज्ञानिक लेख तथा अनेक महत्वपूर्ण पुस्तक
प्रकाशित करके मनोविज्ञान को एक धुँधले एवं अस्पष्ट दार्शनिक वातावरण से बाहर
निकाला। उसने केवल मनोवैज्ञानिक समस्याओं को वैज्ञानिक परिवेश में रखा और उनपर नए
दृष्टिकोण से विचार एवं प्रयोग करने की प्रवृत्ति का उद्घाटन किया। उसके बाद से
मनोविज्ञान को एक विज्ञान माना जाने लगा। तदनंतर जैसे-जैसे मरीज वैज्ञानिक प्रक्रियाओं
पर प्रयोग किए गए वैसे-वैसे नई नई समस्याएँ सामने आईं।
आधुनिक
मनोविज्ञान
आधुनिक मनोविज्ञान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इसके दो
सुनिश्चित रूप दृष्टिगोचर होते हैं। एक तो वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा आविष्कारों
द्वारा प्रभावित वैज्ञानिक मनोविज्ञान तथा दूसरा दर्शनशास्त्र द्वारा प्रभावित दर्शन
मनोविज्ञान। वैज्ञानिक मनोविज्ञान 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से
आरंभ हुआ है। सन् 1860 ई में फेक्नर (1801-1887) ने जर्मन भाषा में
"एलिमेंट्स आव साइकोफ़िज़िक्स" (इसका अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है)
नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें
कि उन्होंने मनोवैज्ञानिक समस्याओं को वैज्ञानिक पद्धति के परिवेश में अध्ययन करने
की तीन विशेष प्रणालियों का विधिवत् वर्णन किया : मध्य त्रुटि विधि, न्यूनतम परिवर्तन विधि तथा
स्थिर उत्तेजक भेद विधि। आज भी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इन्हीं प्रणालियों
के आधार पर अनेक महत्वपूर्ण अनुसंधान किए जाते हैं।
वैज्ञानिक मनोविज्ञान में फेक्नर के बाद दो अन्य महत्वपूर्ण
नाम है : हेल्मोलत्स (1821-1894) तथा वुंट (1832-1920)
हेल्मोलत्स
ने अनेक प्रयोगों द्वारा दृष्टीर्द्रिय विषयक महत्वपूर्ण नियमों का प्रतिपादन
किया। इस संदर्भ में उन्होंने प्रत्यक्षीकरण पर अनुसंधान कार्य द्वारा
मनोविज्ञान का वैज्ञानिक अस्तित्व ऊपर उठाया। वुंट का नाम मनोविज्ञान में विशेष
रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने सन् 1879 ईदृ में लाइपज़िग (जर्मनी) में
मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला स्थापित की। मनोविज्ञान का औपचारिक रूप परिभाषित किया।
लाइपज़िग की प्रयोगशाला में वुंट तथा उनके सहयोगियों ने मनोविज्ञान की विभिन्न
समस्याओं पर उल्लेखनीय प्रयोग किए, जिसमें समय-अभिक्रिया विषयक
प्रयोग विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।
क्रियाविज्ञान के विद्वान् हेरिंग (1834-1918), भौतिकी के विद्वान् मैख (1838-1916) तथा जी ई म्यूलर (1850 से 1934) के नाम भी उल्लेखनीय हैं।
हेरिंग घटना-क्रिया-विज्ञान के प्रमुख प्रवर्तकों में से थे और इस प्रवृत्ति का
मनोविज्ञान पर प्रभाव डालने का काफी श्रेय उन्हें दिया जा सकता है। मैख ने शारीरिक
परिभ्रमण के प्रत्यक्षीकरण पर अत्यंत प्रभावशाली प्रयोगात्मक अनुसंधान किए। उन्होंने
साथ ही साथ आधुनिक प्रत्यक्षवाद की बुनियाद भी डाली। जी ई म्यूलर वास्तव में दर्शन तथा इतिहास के
विद्यार्थी थे किंतु फेक्नर के साथ पत्रव्यवहार के फलस्वरूप उनका ध्यान मनोदैहिक
समस्याओं की ओर गया। उन्होंने स्मृति तथा दृष्टींद्रिय के क्षेत्र में मनोदैहिकी
विधियों द्वारा अनुसंधान कार्य किया। इसी संदर्भ में उन्होंने "जास्ट
नियम" का भी पता लगाया अर्थात् अगर समान शक्ति के दो साहचर्य हों तो दुहराने
के फलस्वरूप पुराना साहचर्य नए की अपेक्षा अधिक दृढ़ हो जाएगा ("जास्ट नियम" म्यूलर के एक विद्यार्थी एडाल्फ
जास्ट के नाम पर है)।
सम्प्रदाय एवं
शाखाएँ (Schools & branches)
व्यवहार विषयक नियमों की खोज ही मनोविज्ञान का मुख्य ध्येय
था। सैद्धांतिक स्तर पर विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए। मनोविज्ञान के क्षेत्र
में सन् 1912 ई के आसपास संरचनावाद, क्रियावाद, व्यवहारवाद, गेस्टाल्टवाद तथा मनोविश्लेषण
आदि मुख्य मुख्य शाखाओं का विकास हुआ। इन सभी वादों के प्रवर्तक इस विषय में एकमत
थे कि मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन ही मनोविज्ञान का उद्देश्य है। उनमें
परस्पर मतभेद का विषय था कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने का सबसे अच्छा ढंग कौन सा
है। सरंचनावाद के अनुयायियों का मत था कि व्यवहार की व्याख्या के लिये उन शारीरिक
संरचनाओं को समझना आवश्यक है जिनके द्वारा व्यवहार संभव होता है। क्रियावाद के
माननेवालों का कहना था कि शारीरिक संरचना के स्थान पर प्रेक्षण योग्य तथा दृश्यमान
व्यवहार पर अधिक जोर होना चाहिए। इसी आधार पर बाद में वाटसन ने व्यवहारवाद की
स्थापना की। गेस्टाल्टवादियों ने प्रत्यक्षीकरण को व्यवहारविषयक समस्याओं का मूल
आधार माना। व्यवहार में सुसंगठित रूप से व्यवस्था प्राप्त करने की प्रवृत्ति मुख्य
है, ऐसा उनका
मत था। फ्रायडने मनोविश्लेषणवाद की स्थापना द्वारा यह बताने का प्रयास
किया कि हमारे व्यवहार के अधिकांश कारण अचेतन प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित होते
हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में इन सभी "वादों" का अब एकमात्र ऐतिहासिक
महत्व रह गया है। इनके स्थान पर मनोविज्ञान में अध्ययन की सुविधा के लिये विभिन्न
शाखाओं का विभाजन हो गया है।
प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में मुख्य रूप से उन्हीं समस्याओं का मनोवैज्ञानिक विधि से
अध्ययन किया जाने लगा जिन्हें दार्शनिक पहले चिंतन अथवा विचारविमर्श द्वारा सुलझाते थे। अर्थात्
संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण। बाद में इसके अंतर्गत सीखने की प्रक्रियाओं का अध्ययन
भी होने लगा। प्रयोगात्मक मनोविज्ञान, आधुनिक मनोविज्ञान की प्राचीनतम
शाखा है।
मनुष्य की अपेक्षा पशुओं को अधिक नियंत्रित परिस्थितियों में
रखा जा सकता है, साथ ही
साथ पशुओं की शारीरिक रचना भी मनुष्य की भाँति जटिल नहीं होती। पशुओं पर प्रयोग
करके व्यवहार संबंधी नियमों का ज्ञान सुगमता से हो सकता है। सन् 1912 ई के लगभग थॉर्नडाइक ने पशुओं पर प्रयोग करके
तुलनात्मक अथवा पशु मनोविज्ञान का विकास किया। किंतु पशुओं पर प्राप्त किए गए परिणाम कहाँ
तक मनुष्यों के विषय में लागू हो सकते हैं, यह जानने के लिये विकासात्मक
क्रम का ज्ञान भी आवश्यक था। इसके अतिरिक्त व्यवहार के नियमों का प्रतिपादन उसी
दशा में संभव हो सकता है जब कि मनुष्य अथवा पशुओं के विकास का पूर्ण एवं उचित
ज्ञान हो। इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए विकासात्मक मनोविज्ञान का जन्म हुआ। सन् 1912 ई के कुछ ही बाद मैक्डूगल (1871-1938)
के
प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज
मनोविज्ञान की स्थापना हुई, यद्यपि इसकी बुनियाद समाज
वैज्ञानिक हरबर्ट
स्पेंसर (1820-1903)
द्वारा
बहुत पहले रखी जा चुकी थी। धीरे-धीरे ज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर मनोविज्ञान का
प्रभाव अनुभव किया जाने लगा। आशा व्यक्त की गई कि मनोविज्ञान अन्य विषयों की
समस्याएँ सुलझाने में उपयोगी हो सकता है। साथ ही साथ, अध्ययन की जानेवाली समस्याओं के
विभिन्न पक्ष सामने आए। परिणामस्वरूप मनोविज्ञान की नई-नई शाखाओं का विकास होता
गया। इनमें से कुछ ने अभी हाल में ही जन्म लिया है, जिनमें प्रेरक मनोविज्ञान, सत्तात्मक मनोविज्ञान, गणितीय मनोविज्ञान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
मनोविज्ञान की मूलभूत एवं अनुप्रयुक्त - दोनों प्रकार की
शाखाएं हैं। इसकी महत्वपूर्ण शाखाएं सामाजिक एवं पर्यावरण मनोविज्ञान, संगठनात्मक व्यवहार/मनोविज्ञान, क्लीनिकल (निदानात्मक)
मनोविज्ञान, मार्गदर्शन
एवं परामर्श, औद्योगिक
मनोविज्ञान, विकासात्मक, आपराधिक, प्रायोगिक परामर्श, पशु मनोविज्ञान आदि है। अलग-अलग
होने के बावजूद ये शाखाएं परस्पर संबद्ध हैं।
नैदानिक मनोविज्ञान - न्यूरोटिसिज्म, साइकोन्यूरोसिस, साइकोसिस जैसी क्लीनिकल
समस्याओं एवं शिजोफ्रेनिया, हिस्टीरिया, ऑब्सेसिव-कंपलसिव विकार जैसी
समस्याओं के कारण क्लीनिकल मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। ऐसे
मनोवज्ञानिक का प्रमुख कार्य रोगों का पता लगाना और निदानात्मक तथा विभिन्न
उपचारात्मक तकनीकों का इस्तेमाल करना है।
विकास मनोविज्ञान में जीवन भर घटित होनेवाले मनोवैज्ञानिक संज्ञानात्मक तथा
सामाजिक घटनाक्रम शामिल हैं। इसमें शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के
दौरान व्यवहार या वयस्क से वृद्धावस्था तक होने वाले परिवर्तन का अध्ययन होता है।
पहले इसे बाल
मनोविज्ञान भी कहते थे।
आपराधिक मनोविज्ञान चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है, जहां अपराधियों के व्यवहार
विशेष के संबंध में कार्य किया जाता है। अपराध
शास्त्र, मनोविज्ञान
आपराधिक विज्ञान की शाखा है, जो अपराध तथा संबंधित तथ्यों की तहकीकात से जुड़ी है।
मनोविज्ञान की प्रमुख शाखाएँ हैं -
·
असामान्य मनोविज्ञान (Abnormal
psychology)
·
जीववैज्ञानिक मनोविज्ञान (Biological
psychology)
·
नैदानिक मनोविज्ञान (Clinical
psychology)
·
संज्ञानात्मक मनोविज्ञान (Cognitive
psychology)
·
सामुदायिक मनोविज्ञान (Community
Psychology)
·
तुलनात्मक मनोविज्ञान (Comparative
psychology)
·
परामर्श मनोविज्ञान (Counseling
psychology)
·
आलोचनात्मक मनोविज्ञान (Critical
psychology)
·
विकासात्मक मनोविज्ञान (Developmental
psychology)
·
शैक्षिक मनोविज्ञान (Educational
psychology)
·
विकासात्मक मनोविज्ञान (Evolutionary
psychology)
·
आपराधिक मनोविज्ञान (Forensic
psychology)
·
वैश्विक मनोविज्ञान (Global
psychology)
·
स्वास्थ्य मनोविज्ञान (Health
psychology)
·
औद्योगिक एवं संगठनात्मक मनोविज्ञान (Industrial
and organizational psychology (I/O))
·
विधिक मनोविज्ञान (Legal
psychology)
·
व्यावसायिक स्वास्थ्य मनोविज्ञान (Occupational
health psychology (OHP))
·
व्यक्तित्व मनोविज्ञान (Personality
psychology)
·
संख्यात्मक मनोविज्ञान (Quantitative
psychology)
·
मनोमिति (Psychometrics)
·
गणितीय मनोविज्ञान (Mathematical
psychology)
·
सामाजिक मनोविज्ञान (Social
psychology)
·
विद्यालयीन मनोविज्ञान (School
psychology)
·
पर्यावरणीय मनोविज्ञान (Environmental
psychology)
·
योग मनोविज्ञान (Yoga
Psychology)
मनोविज्ञान का
स्वरूप एवं कार्यक्षेत्र ((Nature and
Scope of Psychology)
मनोविज्ञान के कार्यक्षेत्र (scope) को सही ढंग से समझने के लिए
सबसे महत्त्वपूर्ण श्रेणी वह श्रेणी है जिससे यह पता चलता है कि मनोविज्ञानी क्या
चाहते हैं ? किये गये कार्य के आधार पर मनोविज्ञानियों को तीन श्रेणियों में
विभक्त किया जा सकता है:
·
पहली श्रेणी में उन मनोविज्ञानियों को
रखा जाता है जो शिक्षण कार्य में व्यस्त हैं,
·
दूसरी श्रेणी में उन मनोवैज्ञानियों को
रखा जाता है जो मनोविज्ञानिक समस्याओं पर शोध करते हैं तथा
·
तीसरी श्रेणी में उन मनोविज्ञानियों को
रखा जाता है जो मनोविज्ञानिक अध्ययनों से प्राप्त तथ्यों के आधार पर कौशलों एवं
तकनीक का उपयोग वास्तविक परिस्थिति में करते हैं।
इस तरह से मनोविज्ञानियों का तीन प्रमुख कार्यक्षेत्र है—शिक्षण (teaching),
शोध (research)
तथा
उपयोग (application)। इन तीनों कार्यक्षेत्रों से सम्बन्धित मुख्य तथ्यों का वर्णन
निम्नांकित है—
शैक्षिक
क्षेत्र (Academic areas)
शिक्षण तथा शोध मनोविज्ञान का एक प्रमुख कार्य क्षेत्र है।
इस दृष्टिकोण से इस क्षेत्र के तहत निम्नांकित शाखाओं में
मनोविज्ञानी अपनी अभिरुचि दिखाते हैं—
(1) जीवन-अवधि विकासात्मक
मनोविज्ञान (Life-span development Psychology)
(2) मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान (Human
experimental Psychology)
(3) पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान (Animal
experimental Psychology)
(4) दैहिक मनोविज्ञान (Psychological
Psychology)
(5) परिणात्मक मनोविज्ञान (Quantitative
Psychology)
(6) व्यक्तित्व मनोविज्ञान (Personality
Psychology)
(7) समाज मनोविज्ञान (Social
Psychology)
(8) शिक्षा मनोविज्ञान (Educational
Psychology)
(9) संज्ञात्मक मनोविज्ञान (Cognitive
Psychology)
(10) असामान्य मनोविज्ञान (Abnormal
Psychology)
जीवन-अवधि विकासात्मक मनोविज्ञान (Life-span development Psychology)
बाल मनोविज्ञान का प्रारंभिक संबंध मात्र बाल विकास (Child
development) के
अध्ययन से था परंतु हाल के वर्षों में विकासात्मक मनोविज्ञान में किशोरावस्था, वयस्कावस्था तथा वृद्धावस्था के
अध्ययन पर भी बल डाला गया है। यही कारण है कि इसे जीवन अवधि विकासात्मक मनोविज्ञान
कहा जाता है। विकासात्मक मनोविज्ञान में मनोविज्ञान मानव के लगभग प्रत्येक क्षेत्र
जैसे—बुद्धि, पेशीय विकास, सांवेगिक विकास, सामाजिक विकास, खेल, भाषा विकास का अध्ययन
विकासात्मक दृष्टिकोण से करते हैं। इसमें कुछ विशेष कारक जैसे—आनुवांशिकता, परिपक्वता, पारिवारिक पर्यावरण, सामाजिक आर्थिक अन्तर (socio-economic
differences) का
व्यवहार के विकास पर पड़ने वाले प्रभावों का भी अध्ययन किया जाता है। कुल
मनोविज्ञानियों का 5% मनोवैज्ञानिक विकासात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत हैं।
मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान (Human experimental Psychology)
मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ मानव
के उन सभी व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है जिस पर प्रयोग करना सम्भव है।
सैद्धान्तिक रूप से ऐसे तो मानव व्यवहार के किसी भी पहलू पर प्रयोग किया जा सकता
है परंतु मनोविज्ञानी उसी पहलू पर प्रयोग करने की कोशिश करते हैं जिसे पृथक किया
जा सके तथा जिसके अध्ययन की प्रक्रिया सरल हो। इस तरह से दृष्टि, श्रवण, चिन्तन, सीखना आदि जैसे व्यवहारों का
प्रयोगात्मक अध्ययन काफी अधिक किया गया है। मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में उन
मनोवैज्ञानिकों ने भी काफी अभिरुचि दिखलाया है जिन्हें प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का
संस्थापक कहा जाता है। इनमें विलियम वुण्ट, टिचेनर तथा वाटसन आदि के नाम
अधिक मशहूर हैं।
पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान (Animal
experimental Psychology)
मनोविज्ञान का यह क्षेत्र मानव प्रयोगात्मक विज्ञान (Human
experimental Psychology) के समान है। सिर्फ अन्तर इतना ही है कि यहाँ प्रयोग पशुओं
जैसे—चूहों, बिल्लियों, कुत्तों, बन्दरों, वनमानुषों आदि पर किया जाता है।
पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में अधिकतर शोध सीखने की प्रक्रिया तथा व्यवहार के
जैविक पहलुओं के अध्ययन में किया गया है। पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र
में स्कीनर, गथरी, पैवलव, टॉलमैन आदि का नाम प्रमुख रूप
से लिया जाता है। सच्चाई यह है कि सीखने के आधुनिक सिद्घान्त तथा मानव व्यवहार के
जैविक पहलू के बारे में हम आज जो कुछ भी जानते हैं, उसका आधार पशु प्रयोगात्मक
मनोविज्ञान ही है। इस मनोविज्ञान में पशुओं के व्यवहारों को समझने की कोशिश की
जाती है। कुछ लोगों का मत है कि यदि मनोविज्ञान का मुख्य संबंध मानव व्यवहार के
अध्ययन से है तो पशुओं के व्यवहारों का अध्ययन करना कोई अधिक तर्कसंगत बात नहीं
दिखता। परंतु मनोविज्ञानियों के पास कुछ ऐसी बाध्यताएँ हैं जिनके कारण वे पशुओं के
व्यवहार में अभिरुचि दिखलाते हैं। जैसे पशु व्यवहार का अध्ययन कम खर्चीला होता है।
फिर कुछ ऐसे प्रयोग हैं जो मनुष्यों पर नैतिक दृष्टिकोण से करना संभव नहीं है तथा
पशुओं का जीवन अवधि (life span) का लघु होना प्रमुख ऐसे कारण हैं। मानव एवं पशु प्रयोगात्मक
मनोविज्ञान के क्षेत्र में कुछ मनोविज्ञानियों की संख्या का करीब 14% मनोविज्ञानी कार्यरत है।
दैहिक मनोविज्ञान (Physical
Psychology)
दैहिक मनोविज्ञान में मनोविज्ञानियों का कार्यक्षेत्र प्राणी
के व्यवहारों के दैहिक निर्धारकों (Physical determinants) तथा उनके प्रभावों का अध्ययन
करना है। इस तरह के दैहिक मनोविज्ञान की एक ऐसी शाखा है जो जैविक विज्ञान (biological
science) से काफी
जुड़ा हुआ है। इसे मनोजीवविज्ञान (Psychobiology) भी कहा जाता है। आजकल
मस्तिष्कीय कार्य (brain functioning) तथा व्यवहार के संबंधों के अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों की
रुचि अधिक हो गयी है। इससे एक नयी अन्तरविषयक विशिष्टता (interdisplinary
specialty) का जन्म
हुआ है जिसे ‘न्यूरोविज्ञान’
(neuroscience) कहा जाता
है। इसी तरह के दैहिक मनोविज्ञान हारमोन्स (hormones) का व्यवहार पर पड़ने वाले
प्रभावों के अध्ययन में भी अभिरुचि रखते हैं। आजकल विभिन्न तरह के औषध (drug) तथा उनका व्यवहार पर पड़ने वाले
प्रभावों का भी अध्ययन दैहिक मनोविज्ञान में किया जा रहा है। इससे भी एक नयी
विशिष्टता (new specialty) का जन्म हुआ है जिसे मनोफर्माकोलॉजी (Psychopharmacology)
कहा जाता
है तथा जिसमें विभिन्न औषधों के व्यवहारात्मक प्रभाव (behavioural
effects) से लेकर
तंत्रीय तथा चयापचय (metabolic) प्रक्रियाओं में होने वाले आणविक शोध (molecular
research) तक का
अध्ययन किया जाता है।
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